वर्तमान परिवेश के राजनीति माहौल में हो रहे उलटफेर को एक नैसीखिए शायर ने अपनी कविता से क्या खूब बयां किया –
।। तंत्र से त्रस्त मन की व्यथा ।।
नीतियाँ रची गयीं, विधान भी गढे गये।
रोज, रोज भाषणों में, स्वांग से पढे गये।
“मंजरी” बनी हैं शूल, कर्म सब हुए फिजूल,
कामनाएँ तार-तार, नीतिमय निदान की,
हो रहा वही यहाँ, जो चाह है प्रधान की,
धूल कह सकी है कब ,खतायें आसमान की,
सारे प्रावधान बस ,जिल्द में पड़े रहे,
और जब पढे गये , बस उलट पढे गये,
अनीति जब चढी शिखर, समर तभी लड़े गये।
नीतियाँ रची गयीं , विधान भी गढे गये।
दंभ के “प्रतीक” व्याल, तंत्र को सता रहे,
दंश में उगल गरल, उसे ही पय बता रहे,
वेदना में वृंद हैं, द्वार नृप के बंद हैं,
मन विकल,अधीर है, “अशील” से प्रबन्ध हैं,
चाँद भी तटस्थ है, भानु तम से पस्त है,
तम निशा गहर रही, “दीप” अस्त-व्यस्त है
भ्रम की यामिनी में, कुछ मयंक निज मढे गये।
नीतियाँ रची गयीं , विधान भी गढे गये।
आस में प्रभात की, जिजीविषा प्रबल रहे,
सत्य पथ सुगम्य और कर्म पथ अटल रहे,
भोर उज्ज्वला अवश्य रश्मि रथ से आयेगी,
भानु की प्रदीप्त से उषा पुनः नहायेगी,
प्रार्थनाओं के फलित, कभी न व्यर्थ जायेंगे,
जिन्दगी के दर्द, कुछ नये सबक सिखायेंगे,
हौसलों से ही सदा, अगम्य गिरि चढे गये।
नीतियाँ रची गयीं, विधान भी गढे गये।
भाषणों में रोज- रोज, स्वांग से पढे गये।
– आयुष सिंह (नौसिखिया कवि)
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