संवाददाता – रवि परिहार
श्रावण शुक्ला सप्तमी तुलसी धर्यो शरीर-
संवद् 1554 को श्रावण शुक्ल पक्ष की सप्तमी को अवतरित गोस्वामी तुलसीदास ने सगुण भक्ति की। राम भक्ति धारा को ऐसा प्रवाहित किया कि आज गोस्वामी जी राम भक्ति के पर्याय बन गए।
बाबा वर्तमान संस्कृति के प्रणेता और मानवता के अमर सन्देश प्रदाता हैं। उनकी दृष्टि भक्ति,आचार व्यवहार, सामाजिक मर्यादा, नैतिक मूल्य और लोकहित के लिए उपयोगी तत्वों पर टिकी रही। बाबा तुलसी महान लोक नायक और क्रांतिदर्शी कवि थे। सत्य की स्थापना और असत्य का नाश बाबा तुलसी के लोकाभिराम की जीवन गाथा है। रामकथा के माध्यम से तुलसी ने हमारे समक्ष मानवता का ऐसा सन्देश प्रस्तुत किया है जिसको अपनाकर हम अपनी संस्कृति की,अपनी वैचारिक विरासत की तथा सम्पूर्ण मानवता की रक्षा कर सकते हैं।
मानस मे ज्ञान वर्धन चौपाई
उपजहिं एक संग जग माहीं।
जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं।
सुधा सुरा सम साधु असाधू।
जनक एक जग जलधि अगाधू।
संत और असंत दोनों ही इस संसार में एक साथ जन्म लेते हैं लेकिन कमल व जोंक की भांति दोनों के गुण भिन्न होते हैं। कमल व जोंक जल में ही उत्पन्न होते हैं लेकिन कमल का दर्शन परम सुखकारी होता है जबकि जोंक देह से चिपक जाए तो रक्त को सोखती है। उसी प्रकार संत इस संसार से उबारने वाले होते हैं और असंत कुमार्ग पर धकेलने वाले। संत जहां अमृत की धारा हैं तो असंत मदिरा की शाला हैं। जबकि दोनों ही संसार रूपी इस समुद्र में उत्पन्न होते हैं।
बाबा का निवास और जन्म स्थान-
राजापुर उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिला के अंतर्गत स्थित एक गांव है। वहां आत्माराम दुबे नाम के एक प्रतिष्ठित सरयूपारीण ब्राह्मण रहते थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम हुलसी था। संवत् 1554 के श्रावण मास के शुक्लपक्ष की सप्तमी तिथि के दिन अभुक्त मूल नक्षत्र में इन्हीं दम्पति के यहां तुलसीदास का जन्म हुआ।
गुरू दीक्षा-
इन्होंने गुरु बाबा नरहरिदास से दीक्षा प्राप्त की
तुलसीदास जी का अधिकाँश जीवन चित्रकूट, काशी और अयोध्या में व्यतीत हुआ!तुलसी दास जी अनेक स्थानों पर भ्रमण करते रहे उन्होंने अनेक कृतियों की रचना हैं, तुलसीदास द्वारा रचित ग्रंथों में रामचरित मानस, कवितावली, जानकीमंगल, विनयपत्रिका, गीतावली, हनुमान चालीसा,बरवै रामायण इत्यादि रचनाएं प्रमुख हैं।
जब संवत 1631 का प्रारम्भ हुआ। दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम- जन्म के दिन था। उस दिन प्रातःकाल तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की। दो वर्ष, सात महीने और छ्ब्बीस दिन में यह अद्भुत ग्रंथ संपन्न हुआ। संवत 1633 के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों कांड पूर्ण हो गये।
अंन्त मे भावानुसार दो शब्द – व्यास-
उन्होंने नया कुछ नहीं कहा। बाबा तुलसी ने संस्कृत में कही बातों को ही कहा, किंतु नये ढंग से कहा और उसे अभिव्यक्त करने के लिए जनता की भाषा को चुना। बाबा तुलसी से यह प्रेरणा ग्रहण की जा सकती है कि मातृभाषा को अपने समाज में पुनर्प्रतिष्ठित करने के लिए अभियान चलाया जाए क्योंकि हिंदी के जातीय तत्वों को पुनर्गठित करने और अपनी सांस्कृतिक पहचान की रक्षा के लिए दूसरा कोई पथ नहीं है ।।
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